क्या लिखू कोई बताता ही नही,
दर्द अपना वो सुनाता ही नही।
मैं उसे हमदर्द अपना मानता,
जख्म दिल का पर दिखाता ही नही।
बात करता अर्श सागर की सदा,
प्यास मेरी तो बुझाता ही नही।
खाक गिरते को उठाये गा कभी,
भार अपना तो उठाता ही नही।
घर तिरे वो रौशनी कैसे करे,
दीप खुद के घर जलाता ही नही।
आग लगती तो धुँआ भी है उठे,
बेवजह तो नाम आता ही नही। ......."रैना"
दर्द अपना वो सुनाता ही नही।
मैं उसे हमदर्द अपना मानता,
जख्म दिल का पर दिखाता ही नही।
बात करता अर्श सागर की सदा,
प्यास मेरी तो बुझाता ही नही।
खाक गिरते को उठाये गा कभी,
भार अपना तो उठाता ही नही।
घर तिरे वो रौशनी कैसे करे,
दीप खुद के घर जलाता ही नही।
आग लगती तो धुँआ भी है उठे,
बेवजह तो नाम आता ही नही। ......."रैना"
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