Saturday, October 1, 2011

सुबह निकली शाम में ढलती जाये,
ये जिन्दगी यूँ ही निकलती जाये,
रफ्तार सुइयों की कम नही होती,
रफ्ता रफ्ता शमा पिगलती जाये,
फ़िक्र यहाँ का वहां का जिक्र नही, 
उलझ के बिगड़ी बिगड़ती जाये.
भटका राह से "रैना" कुछ गौर कर,
रेत हाथों से निरंतर फिसलती जाये."रैना"

No comments:

Post a Comment