Sunday, September 1, 2013

hone lga mai bda

खुली कविता डर
आप की नज़र

पैदा होते ही होने था लगा डर का असर,
मरने तक डर ने छोड़ी न कोई भी कसर।

मां ने डराया बाप ने, दिन ने डराया रात ने,
सर्दी गर्मी डराती रही, खूब डराया बरसात ने।
मास्टर का डर रहा, झुका हमेशा सिर रहा,
खींच खींच डंडे पड़े, डर के मारे चुप रहे खड़े।
डर डर के हम पढ़े, देखते देखते हो गये बड़े।
मन की कली खिल गई,नौकरी जब मिल गई।
अधिकारी कड़क था,आफिस अपना नर्क था। 
हरपल रहता उसका डर,मिलती न उससे नजर,
बोस से जान छूट गई,शादी हुई किस्मत फूट गई।
ग्रहों का न मिला योग,बीवी बेलन करती प्रयोग।
रोज पड़ते धड़ा धड़,फिर बीवी से लगने लगा डर।
जैसे ही बच्चे हो गये बड़े,डंडे लेकर हुये खड़े।
हम छुपाते फिर नजर,डर से गंजा हो गया सर।
बुढ़ापा मजाक करने लगा, मौत से डरने लगा। 
डर ने मेरा खून निचौड़ा,इक पल पीछा न छोड़ा ।
हे भगवन ये क्या किया,डरने के लिए जीवन दिया। राजेन्द्र रैना गुमनाम

 



 

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