Thursday, September 26, 2013

दोस्तो छोटी बहर कि गजल 

जीने की सजा दे गई,
मौत फिर दगा दे गई।
ये ख़ुशी गिला भी मुझे 
बेवफा वफा दे गई। 
आग बुझ गई इश्क की,
कोन फिर हवा दे गई। 
ये गिला बराबर रहा , 
जिंदगी कजा दे  गई ।
गम मुझे नही छू सका,
मेरी मां दुआ दे गई ।    
कब नसीब थे ये मिरे, 
बंदगी सिला दे गई।
खुशनसीब गुमनाम हे,
फूल वो खिला दे गई । राजेंद्र गुमनाम 
   

   

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