दोस्तों मेरी किताब
की इक और ग़ज़ल
दरद दिल से जुदा नही होता,
आग लगती धुआ नही होता।
जख्म ऐसे नजर नही आते,
खून जमता रवा नही होता।
जानता वो नही दर्द क्या है,
प्यार जिसने किया नही होता।
इश्क में जिन्दगी फना होती,
बाग सूखा हरा नही होता।
लाख दावें करे फरेबी पर,
आदमी तो खुदा नही होता।
काश "रैना फर्ज निभा लेता,
हादसा ये हुआ नही होता। "रैना"
की इक और ग़ज़ल
दरद दिल से जुदा नही होता,
आग लगती धुआ नही होता।
जख्म ऐसे नजर नही आते,
खून जमता रवा नही होता।
जानता वो नही दर्द क्या है,
प्यार जिसने किया नही होता।
इश्क में जिन्दगी फना होती,
बाग सूखा हरा नही होता।
लाख दावें करे फरेबी पर,
आदमी तो खुदा नही होता।
काश "रैना फर्ज निभा लेता,
हादसा ये हुआ नही होता। "रैना"
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