Friday, February 22, 2013

fir uthhi aag

मेरी खुली कविता

फिर उठी  हैं आग की लपटें
फूटे बम लगे लाशों के ढेर,
इसकी गलती उसकी गल्ती
पुराना राग वही शुरू है फेर।
गड़ियाल आंसू बहाने लगे,
निर्दोष खुद को बताने लगे,
अपने अपने जला के चूल्हें,
वोटों की रोटी पकाने लगे।
माँ से पूछो क्या हुआ बेटे को,
बहन से पूछो क्या हुआ भाई को,
भारत देश के ये गद्दार मसीहा,
पकड़वा नही सकते कसाई को।
इस बम धमाके में देखो तो,
सिख इसाई हिन्दू न मुसलमान मरा है,
जो भी मरा है वो इक इन्सान मरा है।
बंद करो ये नफरत की लीला,
ये जुल्म और नही अब सह सकते,
कहे "रैना" बाज आ जाये मसीहा,
वरना भारतवासी चुप नही रह सकते।"रैना"

   

No comments:

Post a Comment